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A Shraddha like this too||एक श्राद्ध ऐसा भी|Gyanbajar
A Shraddha like this too||एक श्राद्ध ऐसा भी|Gyanbajar
” एक बार नरसी मेहता के बडे भाई वंशीधर नरसी जी के घर आये । पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था। वंशीधर ने नरसी जी से कहा- “कल पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना। बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।
“नरसी जी ने कहा- “पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।” इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले – “जिन्दगी भर यही सब करते रहना। जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।” नरसी जी ने कहा- “नाराज क्यों होते हो भैया ? मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।
” नगर-समाज मंडली को मालूम हो गया कि दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है। नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नगर मंडली ने बदला लेने की सोची।पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया। प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ?
आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे समाज से बाहर कर दिया जाएगा। अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी। अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। नरसी जी घी उधार में चाहते थे परंतु किसी ने उनको घी नहीं दिया।अंत में एक दुकानदार इस शर्त पर राजी हो गया कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा। बस फिर क्या था।
मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया। अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है। अब नरसी मेहता जी भजन गाने में तल्लीन होकर घर और श्राद्ध सब भूल गए।
भगवान कृष्ण ने अपने भक्त की लाज रखने और सम्मान बचाने के लिए स्वयं नरसी मेहता का रूप धारण किया।और उनके घर पहुंच गए श्राद्ध की तैयारी की ।
और सारी सामग्री बनवाई व श्राद्ध कराते रहे। दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्री कृष्ण भगवान नरसी जी के भेस में श्राद्ध करवा रहे हैं।जय हो प्रभु, वाह क्या माया है, अद्भुत! भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं भेस धर लिए। वो कहते हैं ना कि-“अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा ।प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलते देखा ।।” तो सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया। दक्षिणा में एक-एक अशर्फी भी प्राप्त की।
सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में स्वादिष्ट भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में मिली।वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।दुष्टमति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू-टोना जानता है। इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा। कि मानिकबाई जी भोजन के लिए प्रतीक्षा कर रही है। अब नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई ।
नरसी जी बोले – “वो आने में ज़रा देर हो गयी। क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन के लिए प्रतीक्षा क्यों क्यों कर रही हो ?” मानिकबाई जी ने कहा- “आपका दिमाग तो ठीक है? स्वयं खड़े होकर आपने श्राद्ध का सारा कार्य किया। ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी। सब विदा हो गए, अब आप भी भोजन कर लो।मुझे भी भू ख लग रही है। ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए ।
कि उनके इष्ट देव स्वयं उनका मान रख गए। गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा लिया। नरसी जी मन ही मन में गाते रहे – कृष्णजी, कृष्णजी, कृष्णजी कहें तो उठो रे प्राणी।कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो तो मिथ्या रे वाणी।। भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।
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