प्रोडक्टिविटी के बारे में हमारे कांसेप्ट में ही कमी है.What is lacking in our concept about productivity

हमारे कल्चर में एक शब्द काफी ज्यादा चलता है. ये शब्द है ‘मोर’ यानी ज्यादा, हर किसी को ज्यादा ही चाहिए होता है. ज्यादा काम, ज्यादा नाम और फिर इससे पैदा होता है ज्यादा स्ट्रेस. हम अपने बिज़ी स्केड्यूल में भी इस मोर को एडजस्ट करते रहते हैं. यही वजह है कि हर इंसान काम में ज्यादा प्रोडक्टिविटी चाहता है. इसी चाहत की वजह से इंसान खुद को ही खत्म भी करता जा रहा है. इस किताब के लेखक Michael Hyatt हमको दूसरा रास्ता बताते हैं. जिसकी मदद से हम प्रोडक्टिविटी भी बढ़ा सकते हैं और दिमागी तौर पर शांति भी पा सकते हैं. इस किताब में लेखक कहते हैं कि हमारा टारगेट ही गलत है. हमें ‘मोर’ यानी ज्यादा के ऊपर फोकस नहीं करना चाहिए, इसकी बजाए हमें राईट यानी सही के ऊपर फोकस करना चाहिए.  इस समरी में आप जानेंगे कि डिस्ट्रेकशन वाली इकॉनमी में क्या करें?  और जीरो-सम-गेम क्या होता है?

तो चलिए शुरू करते हैं!

आज के समय में वर्किंग डे कैसा होता है? इस वर्किंग डे में हमें बहुत कुछ करना होता है. ऐसी कई मीटिंग्स होती हैं, जिन्हें हमें अटेंड करना होता है. ऐसे कई मेल्स होते हैं, जिनका जवाब हमें देना होता है. कई रिपोर्ट्स होती हैं जिन्हें लिखना होता है. ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि पूरा दिन काम में कैसे खर्च हो जाता है? पता ही नहीं चलता है. इन सबको पूरा करने में हमारे एफर्ट्स शायद ही कभी पूरे पड़ते हैं. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हम किसी ऐसी नांव में सवार हैं. जिसमें लीकेज हो रहा है. धीरे-धीर वो नांव में पानी भरता जा रहा है और आगे जाकर नांव पूरी तरह से पानी में डूब जाएगी. इन ख्यालों के बाद ही हम मिथ ऑफ़ प्रोडक्टिविटी के जंजाल में फंस जाते हैं. हमें लगता है कि अगर हम ज्यादा से ज्यादा काम के ऊपर फोकस करेंगे तो हम अच्छी सिचुएशन में पहुँच जाएंगे. लेकिन हम भूल जाते हैं कि हम जितना तेजी से काम करने की कोशिश करेंगे, हमारी प्रोडक्टिविटी उतनी ही कम होती जाएगी. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारा स्केड्यूल पहले से भरा हुआ है. हम इसे और ज्यादा भरते जा रहे हैं. ये अप्रोच कुछ इस तरह होती है कि हमें आज तेज मेल लिखने हैं. इसके लिए हम कल के मेल्स अभी से लिखने लगे हैं. इसके बाद नंबर आता है एक और विफल अप्रोच का, हम प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए एक और फ़ालतू सा तरीका लगाते हैं. हमें लगता है कि ओवर टाइम काम करने से काम की प्रोडक्टिविटी बढ़ जाएगी. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं होने वाला है. इस हरकत को हम खुद को ही बहाना देकर खुद का मन भी बहलाते रहते हैं. हम खुद से कहते हैं कि ये ओवर टाइम बस अभी के लिए ही है. बाद में सब कुछ सही और ठीक हो जाएगा.

हमें पता होना चाहिए कि प्रोडक्टिविटी को बढ़ाने के ये सब तरीके सरासर बकवास हैं. इनसे हमें कभी भी कोई फायदा नहीं होने वाला है. इसलिए हमें प्रोडक्टिविटी का लक्ष्य ही नहीं रखना चाहिए. अब सवाल उठता है कि फिर प्रोडक्टिविटी के अलावा क्या लक्ष्य रखा जा सकता है?

इसका जवाब देते हुए लेखक कहते हैं कि आप प्रोडक्टिविटी के अलावा फ्रीडम का लक्ष्य रख सकते हैं.

फ्रीडम के कई मायने हो सकते हैं. उसी में से इसका एक मतलब फ्रीडम ऑफ़ फोकस भी है. इसका मतलब है कि खुद के लिए समय निकालकर फोकस को बढ़ाने के ऊपर काम करना चाहिए. ये काम बहुत महत्वपूर्ण है और काफी कठिन भी है. इस काम को करने में दिमागी मेहनत लगती है. जिसकी वजह से इंसान का शरीर भी थक जाता है.

यह प्रोडक्टिविटी के एक अन्य उद्देश्य को और भी महत्वपूर्ण बना देता है – वह है, कुछ भी ना करने की फ्रीडम. ये सुनने में उल्टा लगता है, लेकिन हमारे अधिकांश सफल विचार वास्तव में तब आते हैं. जब हमारा दिमाग आराम की अवस्था में होता है. इसलिए हफ्ते में कुछ समय आप खुद को भी दे सकते हैं. खुद के समय में आपको कुछ नहीं करना है. शांत रहने की कोशिश करनी है. आपके दिमाग के पास बहुत ज्यादा पॉवर है. वो कुछ ना कुछ ज़रूर कर ही लेगा. याद रखिएगा कि जब दिमाग कुछ नहीं करता है. तभी सबसे बड़े क्रिएटिव आईडिया भी आते हैं.


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