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मित्रों” कुछ भी प्राप्त करने से पहले हमें यह देखना चाहिए कि क्या हम उसके योग्य हैं ?
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पात्रता का विकास
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एक नगर में एक वणिक व्यापारी रहता था। वह बहुत धनवान था। अब उसकी उम्र पचास वर्ष की हो चुकी थी। वह दीक्षा लेकर भगवद्भजन करना चाहता था। किंतु उसका मन अभी भी व्यापार और सांसारिक मोह में जकड़ा हुआ था।
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वह धन कमाने के नए नए तरीके सोचता रहता था। एक दिन उस धनी वणिक के घर
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भिक्षा मांगने एक साधू आया। धनिक ने भिक्षा देते समय देखा कि साधू बड़ा ही तेजस्वी है। वह कोई बड़ा सिद्ध तपस्वी जान पड़ता था।
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उस साधू को देखकर सेठ को दीक्षा की याद आ गयी। उसने साधू से दीक्षा देने का आग्रह किया। साधू ने सेठ को ध्यान से देखा और टालमटोल करने लगा। तब साधू ने सेठ से कहा कि आज दिन ठीक नहीं है। थोडे दिनों के बाद आकर मैं तुम्हें दीक्षा दे दूंगा।
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ठीक पांच दिन बाद साधू ने वणिक के दरवाजे भिक्षा के लिए आवाज लगाई। सेठ ने साधू की आवाज पहचान ली। उसने सोचा कि आज तो दीक्षा मिल ही जाएगी। सेठ भिक्षा के लिए तरह तरह के पकवान और मिठाइयां, मेवे आदि लेकर साधू के पास पहुंचा।
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साधू बोला कि ये सब कमण्डलु में डाल दो। सेठ ने देखा कि कमण्डलु धूल-मिट्टी आदि से बहुत गन्दा हो चुका है। इतने सुंदर और स्वादिष्ट पकवान इसमें डाल देने से खराब हो जाएंगे। उसने कहा, “महाराज, आपका कमण्डलु गन्दा है। यह पकवानों को खराब कर देगा।”
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साधू बोला, “सेठ, जिस प्रकार मेरा कमण्डलु इन सुंदर पकवानों को रखने के योग्य नहीं है। उसी प्रकार तुम्हारा मन अभी सांसारिक माया-मोह, विषय, विकार आदि से गन्दा है। यह अभी दीक्षा प्राप्ति के योग्य नहीं है। पहले अपने आप को पात्र बनाओ फिर दीक्षा के लिए कहना।
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सेठ को बात समझ में आ गयी। उसने साधू को प्रणाम किया और स्वयं को दीक्षा के योग्य बनाने का निश्चय किया।
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मित्रों” कुछ भी प्राप्त करने से पहले हमें यह देखना चाहिए कि क्या हम उसके योग्य हैं ? अगर नहीं, तो पहले हमें उसके योग्य बनना चाहिए, पात्रता उत्पन्न करनीं चाहिये, फिर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। तभी वह टिकाऊ होगी।
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